कब मिलेगी वैचारिक आज़ादी
हमारे देश की सभ्यता 5 हज़ार वर्ष प्राचीन है जिसमें हाथ
जोड़कर आदरपूर्वक संबोधित करने का रिवाज है किन्तु हम हाथ मिलाकर हेलो या हाय का
संबोधन करते है क्योंकि देश की आज़ादी के 70 वर्षों के उपरांत भी हम वैचारिक रूप
से गुलामी की जंजीरों में बंधे हैं, ऐसे अनेकों तर्कों के साथ हम अपने मन
को बहलाने का प्रयास करते है कि हम पाश्चात्य सभ्यता के गुलाम नहीं बल्कि
आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर हो रहे है, किन्तु आधुनिकीकरण का कोई भी ताल्लुक
अपनी सभ्यता को छोड़ने से नहीं है. वर्तमान समय में रूस, चीन, फ़्रांस और जापान
आविष्कारों और गतिशीलता में भारत से काफ़ी आगे हैं जिसका सीधा और साफ़ अर्थ है कि
उनकी जड़ें आज भी उनकी सभ्यता में ही स्थिर है अर्थात उन्होंने आधुनिकीकरण और विकास
के नाम पर स्वयं को नहीं बदला और ना ही अंग्रेजी भाषा सीखने पर मजबूर हुए अपितु
अन्य राष्ट्र को भी व्यवसाय और तकनीक के लिए उनकी भाषा सीखने पर विवश कर दिया. ये
तो हुए बड़े राष्ट्र किन्तु भारत के पड़ोसी राष्ट्र नेपाल ने भी मॉडर्न बनने की होड़
में स्वयं को नहीं बदला और आज भी नेपाल अपनी सभ्यता और सादगी के लिए ही जाना जाता
है...
इस्लामिक राष्ट्रों की बात करें वहां भी अपनी सभ्यता और रीतिरिवाजों
का काफ़ी संजीदगी के साथ पालन किया जाता है, उनकी भाषा, वेशभूषा और रहन-सहन
पाश्चात्य सभ्यता के समान नहीं है या कहें मॉडर्न बनने की होड़ के बदले वो वो अपनी
सभ्यता की ओर ही अग्रसर हुए किन्तु हम केवल पठानी वस्त्रों, लम्बी दाड़ी और सिर
पर टोपी को ग़लत नजरिये से देखने के आदि हो चले है किन्तु हमको उनसे सीख लेना चाहिए
कि किस प्रकार अपनी मौलिकता और सभ्यता का निष्ठापूर्वक संरक्षण किया जा सकता है, हिन्दू धर्म की बात
करें तो हम भगवा वस्त्र धारण करने या तिलक लगाने को राजनैतिक माप-दण्डों की वजह से
नकार देते है किन्तु हम भगवा रंग के महत्त्व से अंजान है या कहें अंजान बने हुए
है. जिनको बोध नहीं हैं तो उनको बता दूं कि भगवा रंग की शुरुआत रामायण काल से हुई
है, लंका दहन के उपरांत हनुमान जी के शरीर में आग की वजह से उत्पन्न जलन
को शांत करने हनुमान जी द्वारा जंगल में लगे हुए सिन्दूर के फ़लों का लेपन किया गया
था जिससे उन्हें शारीरिक जलन से शांति प्राप्त हुई थी किन्तु सिन्दूर के फ़लों के
लेपन की वजह से उनके शरीर का रंग भगवामय हो गया था और सुन्दरकाण्ड के उपरांत
हिन्दू धर्म का पर्याय बन गया ये सुन्दर सिन्दूरी-रंग अर्थात भगवा रंग, किन्तु यहाँ एक बात
और स्पष्ट करना चाहूँगा कि भगवा रंग मानसिक शांति का घोतक होने के साथ-साथ उत्साह
और उमंग का पर्याय भी है किन्तु उत्तेजना, इर्षा और हिंसा से इसका कोई भी
ताल्लुक नहीं है अर्थात भगवा राजनीति के प्रचारक भगवा की सादगी से पूर्णत: अंजान
ही दृष्टिगोचर होते है...
हम भारतीय सबसे ज्यादा ग्रसित अंग्रेजी भाषा बोलने की बीमारी से हैं
क्योंकि वर्तमान समय में अंग्रेजी बोलना और लिखना एक चलन बन गया है और अंग्रेजी ना
जानने वाले इंसान को हेय दृष्टि से देखा जाता है किन्तु अपनी माँ के बजाय दूसरे की
माँ की सेवा को कैसे सार्थक कहा जा सकता है, अभिवावकों द्वारा बच्चों से अंग्रेजी
में स्वर-व्यंजन से लेकर कविता तक और अंग्रेजी संबोधन से लेकर अंग्रेजी प्रतिउत्तर
की होड़ देखी जा सकती है किन्तु अंग्रेजी की होड़ के चलते वर्तमान छात्र हिंदी भाषा
के “अ” के अज्ञान से “ज्ञ” के ज्ञान तक की सीमा पर पहुँचने से
वंचित ही रह जाते है और जब प्रतियोगी परीक्षा में उसी अरुचि-कर हिंदी भाषा के
प्रश्न आते है तो ये मॉडर्न शिक्षित युवा हाथ मलते रह जाते है क्योंकि ये तार्किक
सत्य है कि प्रतियोगी परीक्षा में सर्वाधिक उच्च पदों पर बाज़ी बिहार, उत्तर प्रदेश और
राजस्थान राज्य के हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों द्वारा ही मारी जा रही है. उच्च
शिक्षा में भी चिकित्सा से लेकर अभियांत्रिकी तक अंग्रेजी माध्यम में ही उच्च
शिक्षा उपलब्ध है जिसे पूर्ण करने की होड़ में छात्र शब्दों के अर्थ के बदले रटने
में अधिक भरोसा करने लगे है, क्या भारतीय शिक्षा प्रणाली इतनी बेबस
है कि स्वयं की भाषा में शिक्षा का कार्य संपन्न नहीं किया जा सकता, हिंदी भाषा में
बोलना शर्म की बात नहीं जिसे स्वामी विवेकानंद ने सिकागो के भाषण से सिद्ध किया था
जिसे समझने में हमको 150 वर्ष लग गये कि वहां भाषा का नहीं अपितु सन्देश का महत्त्व था.
अंग्रेजी भाषा सीखना अनुचित नहीं किन्तु हिंदी भाषा को दरकिनार कर अंग्रेजी को
प्राथमिकता देना भी तो उचित नहीं, हमारे समक्ष सोनिया गाँधी से लेकर
कैटरीना कैफ के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने भारतवासियों से सीधे ताने-बाने के लिए
हिंदी भाषा बोलना सीखा ही नहीं बल्कि हिंदी से शर्मसार होने वाले भारतीयों को एक
सीख भी दी है...
सभ्यता की चादर ओढ़े भारत के ग्रामीण अंचलों से लेकर शहरों में देशी
वेशभूषा अर्थात पुरुषों में धोती-कुर्ता, युवतियों में सलवार कुर्ता और महिलाओं
में साड़ी का रिवाज था किन्तु भारत में समय के चलन में पेंट-शर्ट को स्वीकारना
अनुचित नहीं किन्तु कपड़ों से फूहड़ता परोसने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है, युवतियों द्वारा
जीन्स-टॉप या मॉडर्न कपड़े पहनना कदापि गलत नहीं किन्तु अपने जिस्म की नुमाइश को
कैसे तार्किक माना जाए, भारतीय सिनेमा ने देशी पहनावे को भी फूहड़ता का अमलीजामा पहना कर
मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी, उ-लाला, उ-लाला और चिकनी चमेली जैसे गीतों को
परोसा जिसमें यह दिखाया गया कि देशी वस्त्रों से भी कामुकता और फूहड़ता परोसी जा
सकती है, किन्तु विचारों में शुद्धता हो तो मॉडर्न वस्त्रों से भी भारतीय
सभ्यता की झलक देखी जा सकती है का सन्देश NH-10,
नो वन किल्ड जेसिका, मर्दानी, मेरी कॉम, बेबी और कॉर्पोरेट
जैसी सशक्त फ़िल्मों ने दिया और यह बता दिया कि शक्ति के पर्याय भारतीय महिलाओं की
नुमाइश के बिना भी दर्शकों को आकर्षित किया जा सकता है...
हमारे देश में सोशल मीडिया का चलन इतना है कि पाश्चात्य सभ्यता की
होड़ में हम मदर डे, फ़ादर डे, फ्रेंडशिप डे, वेलेंटाईन डे मनाने में इतने व्यस्त हो गए है कि माता-पिता, दोस्ती और प्रेम को
एक दिन में सीमित कर दिखावा करने से भी बाज नहीं आते, अब आप ही विचार
करें कि क्या माता-पिता के स्नेह और आशीर्वाद को एक दिन में दर्शाया जा सकता है ? दोस्ती और प्रेम के
इज़हार के लिए क्या कोई विशेष अवसर होना आवश्यक है ? कुछ मोबाइल एप्प ने भी भारतीय
नागरिकों को अभिव्यक्ति और मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसने का जरिया मुहैय्या
कराया है जिनके मध्यम से युवाओं ने जल्द पहचान बनाने की होड़ में कम वस्त्रों से
लेकर अपशब्दों से भी परहेज नहीं किया,
30 सेकण्ड के इन वीडियो के सहारे
धन-उपार्जन की आधुनिकीकरण की हद यह है कि स्टेटस बनाने की होड़ में अनेकों युवाओं
को लाज-शर्म का पर्दा भी उतार दिया. हमारे देश में इन्टरनेट के माध्यम से समाचार
और शिक्षा सर्च करने का आंकड़ा पोर्न वीडियो सर्च करने के आंकडें का आधा भी नहीं है, कामुकता की लालसा
में अश्लीलता का यह आलम है कि देश से पोर्न वेबसाइट बंद करने पर तथाकथित समाज सेवी
एवं उच्च शिक्षित वर्ग ने भी अपने विरोध के स्वर मुखरित किये, शराब-बंदी के मामले
में सरकार का यह तर्क होता है कि यह आय का बहुत बड़ा जरिया है तो सरकार ने उक्त
तर्क को ध्यान में रखते हुए बंद की गई पोर्न वेबसाइट का रास्ता पुन: खोल दिया, क्या यह अश्लील
डिजिटलीकरण की मानसिकता भारत के विश्वगुरु बनने के स्वप्न को पूर्ण कर पाएगी...
बात करें भारतीय सभ्यता और संस्कृति की जिसमें वेदों में चिकित्सा
प्रणाली से लेकर योग के सिद्धांतों तक भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित के शून्य से
लेकर त्रिकोणमिति के सिद्धांतों तक, हवाई जहाज उड़ाने के अविष्कार से लेकर
पेड़ पौधों में जीवन होता है के सिद्धांत की विवेचना भी समाहित है किन्तु आसीमित
ज्ञान के श्रोत वेदों को हमने केवल धर्मग्रन्थ तक ही सीमित कर रखा है, उक्त युक्तियों को
अपनाकर स्वेदेशी आयुर्वेद और योग प्रणाली से लेकर अंतरि
क्षयान की मंगल यात्रा में
भी भारतीयों की स्वदेसी तकनीक ही कारगर सिद्ध हुई है, भारतीय कृषि पद्धति
भी भारतीय संस्कृति या कहें जैविक खेती की ही ओर पुन: अग्रसर हो रही है अर्थात
रासायनिक खाद, पेस्टीसाइड और कीटनाशकों की तुलना में जैविक खाद को अधिक कारगर मानते
हुए विदेशी भी इसके गुर को सीखने भारत आ रहे है, स्वामी विवेकानंद के विचारों से लेकर
महात्मा गाँधी के सन्देश तक, होमी जहांगीर भावा के आविष्कारों से
लेकर डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम तक, हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद से लेकर
क्रिकेट के सफलत्तम बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर तक, बॉक्सिंग की जान मैरी कॉम से लेकर चैस
के ग्रैंड-मास्टर विश्वनाथन आनंद तक, स्वर कोकिला लता मंगेशकर के गायन से
लेकर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन के संगीत तक, शिक्षा में आर्य भट्ट से लेकर डॉ.
सर्व पल्ली राधा कृष्णन तक और अब तकनीक में सत्यम नडाल से लेकर सुन्दर पिर्चाई तक
के कार्यों का लोहा विश्व पटल पर माना गया है फिर भी हम 5 हज़ार वर्ष प्राचीन
सभ्यता के नागरिकों को समय के साथ चलने के लिए अंग्रेजी कैलेण्डर की ही आवश्यकता
होती है...
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