मुझे प्यारा वो मेरा घर था
गांव का वो समां था एक छोटा मकां था
पर दिल बहुत बड़े थे अपनेपन से भरे थे
बेफिक्री में जीते थे दिल प्रेम से न रीते थे
फ़ुर्सत में रहते थे,'व्यस्त हैं' कब कहते थे?
उमंगो से भरा बड़ा सुखद वो सफर था
मुझे प्यारा वो मेरा घर था।
दो कमरे थे छोटे पर कम कहाँ वो पड़ते थे
अतिथियों से सजे खुले वो घर के आंगन थे
चंगे-कंचे ,गुल्ली-डंडे के खेल मनभावन थे
तितली जुगनू पकड़ते न थकते भोले मन थे
कम थे साधन पर सुख से जीवन बसर था
मुझे प्यारा वो मेरा घर था।
वो आंगन में एक घना पेड़ नीम का था
छाया शीतल, सुखद समीर का था दाता
वह परिंदों का बनता शांत सुंदर ठिकाना
सावन के झूलों को डालें देती थी सहारा
वो सादा सा जीवन हंसता हर पहर था
मुझे प्यारा वो मेरा घर था ।
मुंडेर से सटकर खिलती वो फूलों की क्यारी
सेम सहजन की फलियों की शोभा थी न्यारी
वो आंगन के बीच महकती तुलसी की मंजरी
दाना चुगने पंछियों को बुलाती घर की देहरी
था खुशियों का आलम सुहाना वो मंज़र था
मुझे प्यारा वो मेरा घर था।
वो चारपाईयों पर लगते थे बिस्तर निरंतर
चंदा मामा से बातें करते थे सोते में अक्सर
तारे गिनते- गिनते पलकें होती थी बोझिल
चिड़ियों की चहचहाहट हर सुबह में थी शामिल
दादी नानी की कहानी में खोया बालमन था
मुझे प्यारा वो मेरा घर था।
जब से पाई दौलत और मकान हो गए बड़े
जगह कम पड़ने लगी कि दिल हुए हैं छोटे
दायरा हुआ सीमित स्वार्थ सागर में सब लिप्त
रूठे से हैं रिश्तें हृदय की मधुरता गई मिट
मैंने देखा था जो सपनों में वो ये शहर था।
मुझे प्यारा वो मेरा घर था।
लेखिका
कंचन वर्मा
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