विधायक उमादेवी खटीक कि विधानसभा हटा में कागजी दावों में शौचालय,लेकिन गांवों में अभी तक खुले में शौच
जबकि,स्वच्छ भारत मिशन के तहत लाखों शौचालय बनने के दावों के बावजूद कई गांवों में लोग आज भी खुले में शौच जाने को मजबूर हैं।महिलाओं और बच्चियों को असुरक्षित स्थिति का सामना करना पड़ता है।
स्वच्छ भारत मिशन के तहत लाखों शौचालय बनने के सरकारी दावों के बावजूद आज भी कई गांवों में लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। यह न सिर्फ स्वच्छता अभियान की अधूरी तस्वीर दिखाता है,बल्कि ग्रामीण जीवन की हकीकत भी उजागर करता है।आर्थिक मदद मिलने के बाद भी कुछ परिवारों ने शौचालय नहीं बनवाए, कुछ ने अधूरा छोड़ दिया और कई जगह पानी की कमी ने बने-बनाए शौचालयों को बेकार कर दिया।
नतीजा यह हुआ कि महिलाएं और बच्चियां आज भी सुबह-शाम खेतों सड़को और सुनसान स्थानों पर जाने को विवश हैं। इससे सुरक्षा और स्वास्थ्य दोनों पर खतरा बना रहता है।
देश ने जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर स्वच्छ भारत मिशन को अपनाया,तब गांव-गांव में एक नई उम्मीद जगी थी। लाखों करोड़ रुपये खर्च हुए, अभियान को लेकर बड़े पैमाने पर प्रचार हुआ और गांव-गांव तक स्वच्छता की गूंज पहुंची। लेकिन आज,एक दशक बाद, जब हम पटेरा विकासखंड के कुम्हारी क्षेत्र की गलियों में चलते हैं,तो बता पाते हैं कि तस्वीर उतनी चमकदार नहीं है जितनी सरकारी रिपोर्टों में दिखाई जाती है। कुम्हारी,चीलघाट,कालाकोट, धनगुवां,देवरीरतन,करोदी,जैसे गांव आज भी खुले में शौच की समस्या से जूझ रहे हैं।काग़ज़ों पर ज्यादातर गांव ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त घोषित हो चुके हैं।
लेकिन ज़मीनी सच्चाई कहती है कि इन गांवों में केवल 20 फीसदी घरों में ही शौचालय बने हैं। बहुत से परिवारों को सरकार से जो राशि मिली,उसका उपयोग शौचालय में नहीं हुआ।कहीं राशि पूरी नहीं पहुंची,तो कहीं निर्माण बीच में ही अधूरा छोड़ दिया गया।गांवों की पगडंडियों पर आज भी सुबह और शाम को महिलाओं और बच्चों का झुंड खेतों जंगलों सड़को की ओर जाती दिखाई देती है।खेतों के मेड़,खाली पड़ी जमीनें और तालाब के किनारे अब भी शौच स्थलों के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं।यह दृश्य न सिर्फ बदबू और गंदगी फैलाता है,बल्कि बीमारियों का स्थायी कारण भी है।
संवाददाता :- चंदन सिंह लोधी

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