मध्य प्रदेश के दो पत्रकारों के लिए अगर सवाल पूछने की कीमत गिरफ्तारी हो, तो संविधान किताबों में रह जाएगा, ज़मीन पर नहीं


राजस्थान पुलिस द्वारा मध्य प्रदेश के दो पत्रकारों आनंद पांडेय और हरीश दिवेकर की गिरफ्तारी ने पूरे देश में एक बार फिर उस प्रश्न को जीवित कर दिया है कि क्या सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों के साथ राज्य मशीनरी निष्पक्ष रह पाती है? मामला सतह पर भले ही “उगाही” और “झूठी खबरें फैलाने” का प्रतीत होता हो, पर इसकी तह में कई ऐसे कानूनी और संवैधानिक प्रश्न छिपे हैं जो न केवल इस गिरफ्तारी की वैधता बल्कि हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की आत्मा तक को झकझोरते हैं.न्यायालय को यह स्पष्ट करना चाहिए कि लोकतंत्र में आलोचना से निपटने का तरीका सूचना का दमन नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित सुनवाई और प्रमाण प्रस्तुत करना है. लोकतंत्र की सच्ची रक्षा तभी संभव है जब सत्ता और सवाल दोनों अपनी मर्यादाओं में रहें. पत्रकार सवाल पूछता है और यही उसका कर्तव्य है.यदि सवाल पूछने की कीमत गिरफ्तारी बन जाए, तो संविधान केवल किताबों में रह जाएगा, ज़मीन पर नहीं. यह सिर्फ दो पत्रकारों की गिरफ्तारी का मामला नहीं, बल्कि संविधान की साख और लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है.

दोनों पत्रकार, जो द सूत्र  नामक यूट्यूब चैनल चलाते हैं, के खिलाफ राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी के कार्यालय की ओर से एक एफआईआर दर्ज कराई गई थी. आरोप है कि उन्होंने दीया कुमारी के विरुद्ध भ्रामक खबरें प्रसारित कर आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कोशिश की. शिकायत में कहा गया कि उन्होंने यह प्रसारित किया कि दीया कुमारी ने कथित रूप से सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा किया है और सरकार इस पर मौन है. यह शिकायत नरेंद्र सिंह राठौर (निवासी नागौर, वर्तमान में जयपुर) द्वारा दर्ज कराई गई थी, जबकि कुछ रिपोर्टों में जिनेश जैन का नाम भी सामने आया है. एफआईआर दर्ज होते ही राजस्थान पुलिस ने मध्य प्रदेश पहुंचकर दोनों पत्रकारों को हिरासत में लिया और उन्हें जयपुर ले आई.

देखने में यह कार्रवाई सामान्य प्रतीत होती है, लेकिन जब इसे भारतीय संविधान और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता( BNSS) की धाराओं के आलोक में परखा जाए, तो पूरी प्रक्रिया पर गंभीर प्रश्नचिह्न उभरते हैं. पहली दृष्टि में यह मामला BNSS की धारा 35 तथा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के उल्लंघन की ओर संकेत करता है.

गिरफ्तारी से पहले कोई प्रथम सूचना नोटिस (Notice of Appearance) जारी नहीं किया गया, न ही ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत हुआ जिससे यह सिद्ध हो सके कि तत्काल गिरफ्तारी अपरिहार्य थी. जब कोई अपराध “गैर-गंभीर” श्रेणी में आता है और आरोपी सहयोग के लिए उपलब्ध है, तो पुलिस को BNSS की धारा 35 के तहत पहले नोटिस देना अनिवार्य है. लेकिन यहां ऐसा प्रतीत होता है कि गिरफ्तारी सीधे राजनीतिक प्रभाव के आधार पर की गई - जो संविधान की भावना के पूर्णतः: विपरीत है.

कानूनी दृष्टि से सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या राजस्थान पुलिस को मध्य प्रदेश की सीमा में इस प्रकार की गिरफ्तारी करने का अधिकार था, और क्या उन्होंने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के संबंधित प्रावधानों का पालन किया? जब किसी राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में कार्रवाई करती है, तो उसे स्थानीय पुलिस को अग्रिम सूचना देना अनिवार्य होता है. यह प्रावधान न्यायिक पारदर्शिता और आरोपी के अधिकारों की रक्षा के लिए है. उपलब्ध रिपोर्टों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं कि मध्य प्रदेश पुलिस को गिरफ्तारी से पहले या दौरान औपचारिक रूप से सूचित किया गया. यदि यह सत्य है, तो यह न केवल प्रक्रियात्मक खामी है बल्कि संघीय ढांचे और न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन भी है.

इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट नहीं कि गिरफ्तारी के समय दोनों पत्रकारों को उनके अधिकारों - गिरफ्तारी के कारण जानने और वकील से परामर्श के अधिकार (Article 22(1)) -की जानकारी दी गई या नहीं. यदि यह अधिकार उनसे छीना गया, तो यह सीधे-सीधे मौलिक अधिकारों के हनन की श्रेणी में आता है.

पुलिस ने इस मामले को “साइबर अपराध” और “उगाही” के एंगल से जांचने की बात कही है, लेकिन अब तक कोई डिजिटल साक्ष्य या लिखित प्रमाण सार्वजनिक नहीं किए गए. यदि आरोपित वीडियो या रिपोर्ट तथ्यहीन थे, तो सबसे पहले संबंधित प्लेटफ़ॉर्म से कंटेंट टेकडाउन नोटिस जारी किया जाना चाहिए था. सीधे गिरफ्तारी का अर्थ केवल यही निकाला जा सकता है  कि राज्यसत्ता आलोचना को अपराध मान रही है.

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस मामले में दुराशय पूर्ण मंशा (Mala Fide Intent) की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि किसी लोकसेवक के विरुद्ध खबर प्रसारित करने पर बिना जांच के सीधे गिरफ्तारी होती है, तो यह प्रेस की स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार है. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार स्पष्ट किया है कि “लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना देशद्रोह नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार है.” (देखें -Romesh Thapar vs State of Madras, 1950; Shreya Singhal vs Union of India, 2015).

हाई कोर्ट के समक्ष यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि क्या यह कार्रवाई प्रेस-स्वतंत्रता के हनन का उदाहरण है? क्या “मानहानि” और “उगाही” जैसे आपराधिक आरोपों की आड़ में आलोचनात्मक पत्रकारिता को दबाने का प्रयास किया गया? संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध केवल तभी लगाए जा सकते हैं जब वे विधि द्वारा युक्तिसंगत हों  लेकिन इस गिरफ्तारी में युक्तिसंगतता का कोई ठोस आधार नहीं दिखता.

यह भी गौर करने योग्य है कि पुलिस ने कहा है कि आरोपियों को 24 घंटे के भीतर अदालत में पेश किया गया, परंतु क्या यह प्रक्रिया न्यायिक निगरानी में हुई या केवल औपचारिकता पूरी की गई? यदि अदालत में पुलिस ठोस साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकी, तो यह गिरफ्तारी अवैधानिक (Illegal Detention) की श्रेणी में आएगी.

यदि यह सचमुच उगाही या ब्लैकमेलिंग का मामला होता, तो पुलिस को फॉरेन्सिक ऑडिट, बैंक लेनदेन और संचार रिकॉर्ड जैसे प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए थे. इनके अभाव में यह कार्रवाई केवल भय का वातावरण बनाने का प्रयास प्रतीत होती है.

सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी की ओर से अब तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया. जब शिकायत उनके कार्यालय से दर्ज हुई है, तो आरोपों के तथ्य स्पष्ट होने चाहिए थे. बयान की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि यह कार्रवाई प्रशासनिक स्तर पर ही संचालित की गई , जो न्यायिक दृष्टि से कमजोर कड़ी है.

यदि यह मामला हाई कोर्ट के समक्ष आता है, तो अदालत को यह देखना होगा कि क्या यह गिरफ्तारी “आवश्यकता” के बजाय “दमन” का प्रतीक है. सुप्रीम कोर्ट ने Arnesh Kumar vs State of Bihar (2014) में स्पष्ट कहा था कि गिरफ्तारी तभी की जा सकती है जब यह जांच के लिए अपरिहार्य हो  अन्यथा यह मनमानी कार्रवाई मानी जाएगी.

पत्रकारिता के क्षेत्र में यह घटना भय और असुरक्षा का संकेत देती है. यदि कोई पत्रकार किसी प्रभावशाली व्यक्ति पर सवाल उठाए और परिणामस्वरूप पुलिस कार्रवाई का सामना करे, तो यह लोकतंत्र के लिए गहरी चेतावनी है.

कानूनी रूप से यह मामला प्रेस-स्वतंत्रता बनाम सत्ता नियंत्रण की खींचतान का नया अध्याय बन सकता है. हाई कोर्ट को यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य-सत्ता की सीमाएँ तय रहें और कानून का उपयोग दमन के उपकरण के रूप में न हो. यदि यह सिद्ध होता है कि गिरफ्तारी बिना उचित प्रक्रिया के की गई, तो यह अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन माना जाएगा ,जो किसी भी लोकतांत्रिक शासन में अस्वीकार्य है.

कानून और लोकतंत्र का संतुलन यह नहीं कहता कि पत्रकारिता को निरंकुश स्वतंत्रता मिले, बल्कि यह कहता है कि आलोचना को अपराध न माना जाए. हर रिपोर्ट और हर सवाल लोकतंत्र की जड़ है; अगर उसे दबाया गया, तो लोकतंत्र की आत्मा का ह्रास होगा.

इसलिए आवश्यक है कि हाई कोर्ट इस पूरे प्रकरण की न्यायिक जांच (Judicial Scrutiny) करे, पुलिस की कार्रवाई की वैधता की समीक्षा करें और यह स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करे कि भविष्य में किसी पत्रकार के विरुद्ध कार्रवाई से पहले कानून के सभी प्रावधानों का पालन किया जाए.

कानूनी प्रक्रिया पर गंभीर प्रश्नचिह्न

यह गिरफ्तारी पहली दृष्टि में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 (जिसमें गिरफ्तारी से पहले नोटिस का प्रावधान है) और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के उल्लंघन की ओर संकेत करती है:

BNSS धारा 35 का उल्लंघन: गिरफ्तारी से पहले प्रथम सूचना नोटिस जारी न करना प्रक्रिया का सीधा उल्लंघन है. जब अपराध "गैर-गंभीर" श्रेणी में आता है और आरोपी जांच में सहयोग के लिए उपलब्ध है, तो पुलिस को BNSS की धारा 35 के तहत नोटिस जारी करना अनिवार्य है. ऐसा प्रतीत होता है कि इस अनिवार्य कदम को दरकिनार कर गिरफ्तारी सीधे राजनीतिक प्रभाव के आधार पर की गई, जो संविधान की भावना के विपरीत है.

अंतरराज्यीय गिरफ्तारी की वैधता: क्या राजस्थान पुलिस ने मध्य प्रदेश में गिरफ्तारी करते समय BNSS की धारा के प्रावधानों (अंतरराज्यीय गिरफ्तारी के लिए स्थानीय पुलिस को सूचित करना) का पालन किया? यदि मध्य प्रदेश पुलिस को औपचारिक रूप से अवगत नहीं कराया गया, तो यह न केवल प्रक्रियात्मक खामी है, बल्कि संघीय ढांचे और न्यायिक अनुशासन की अवमानना भी है.

मौलिक अधिकारों का हनन: गिरफ्तार पत्रकारों को उनके अधिकारों (गिरफ्तारी के कारण जानने और कानूनी सलाहकार से परामर्श का अधिकार) की जानकारी दी गई या नहीं? यदि यह अधिकार छीना गया, तो यह सीधे-सीधे संविधान के अनुच्छेद 22(1) के उल्लंघन की श्रेणी में आता है.

दुर्भावनापूर्ण इरादे और प्रेस स्वतंत्रता पर प्रहार

आलोचना को अपराध मानना: बिना ठोस डिजिटल साक्ष्य या लिखित प्रमाण सार्वजनिक किए, आलोचनात्मक रिपोर्टिंग को "साइबर अपराध" और "उगाही" बताना केवल एक ही अर्थ रखता है- राज्यसत्ता आलोचना को अपराध मान रही है.

दमन का प्रतीक: सुप्रीम कोर्ट ने Arnesh Kumar vs State of Bihar (2014) मामले में स्पष्ट किया था कि गिरफ्तारी केवल तभी की जानी चाहिए जब वह जांच के लिए अपरिहार्य हो. यदि जांच के लिए आरोपी का सहयोग पर्याप्त है, तो गिरफ्तारी अंतिम विकल्प होना चाहिए, न कि प्रथम प्रतिक्रिया. इस मामले में, गिरफ्तारी "आवश्यकता" के बजाय "दमन" का प्रतीक प्रतीत होती है.

न्यायिक नजीर की अवमानना: सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि "लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना देशद्रोह नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार है." (जैसे: Romesh Thapar vs State of Madras, 1950). यदि किसी लोक सेवक के खिलाफ खबर प्रसारित करने पर बिना तथ्य जांचे सीधी गिरफ्तारी होती है, तो यह "प्रेस की स्वतंत्रता" पर गंभीर आघात है.

 राजस्थान पुलिस की यह कार्रवाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर प्रहार है. अब यह न्यायपालिका के विवेक पर है कि वह इस आग को न्याय से बुझाती है या सत्ता की चुप्पी से इसे और भड़कने देती है.  न्यायालय को यह स्पष्ट करना चाहिए कि लोकतंत्र में आलोचना से निपटने का तरीका सूचना का दमन नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित सुनवाई और प्रमाण प्रस्तुत करना है. यदि सवाल पूछने की कीमत गिरफ्तारी बन जाए, तो संविधान केवल किताबों में रह जाएगा, ज़मीन पर नहीं. यह सिर्फ दो पत्रकारों की गिरफ्तारी का मामला नहीं, बल्कि संविधान की साख और लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है.

संवाददाता :- ख़ुशी ढिमोले