अस्तित्व
तूने कभी नहीं समझा मुझे,
हर वक्त चलाते गये हुकूमत,
चिल्ला कर बोलना,
डाँटना डपटना ये लगभग दिनचर्या थी तेरी,
तूने कभी नहीं समझा मुझे,
न समझने की कोशिश की,
मेरे धीमे बोलना,
तेरी हर बातों पर हाँ में हाँ मिलना,
तेरे प्रति लगाव था मेरा,
पर तूने इसे मेरी कमजोरी समझी,
हावी होते चले गए तुम,
मुझपर ,
मेरे हर कार्यों टोकना,
आदत सी थी तुम्हारी,
कभी भी तुम मुझे मेरे अस्तित्व को समझने की कोशिश नहीं कि,
आखिर कब तक ,
तुम मुझे नापसंद करते हो,
तो पहले ही करना चाहिये था न,
जिंदगी बर्बाद कर के क्या होगा,
मुझे कोई आसरा भी नहीं तुमसे,
मेरे जीते जी,
तूने मेरे जगह दूसरे को बिठाया है,
सारा दोषारोपण मेरे पे है,
तुम करते हो तुम्हारा परिवार करता है,
फिर कहाँ बचा मेरा अस्तित्व,
अस्तित्व विहीन हो जीना कठिन हो रहा है।
लेखिका -
अलका मिश्रा अतुल्या
गुमला (भरनो)झारखंड
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