त्रास
इतिहास साक्षी है इस त्रास का
जब- जब युद्धों की हवा चली
घृणा की अग्नि जब भी फैली
नारी जली बस नारी जली ।
नारी के तन की कीमत पर
क्यों हर युद्ध लड़ा जाता है?
उग्र द्वेषअग्नि के शमन हेतु
स्त्री का मान हरा जाता है ।
सुकोमल सुंदर तन नारी का
ईश्वर प्रदत्त है यह विशिष्टता
शत्रु बनी है आज नारी की
सुंदरता सौम्यता सुकुमारता।
मानहीन जननी को करके
सम्मुख वस्त्र उतारे जाएं
तुम ही बताओ हे परमपिता
हम जिएं या फिर मर जाएं।
या तो चिन्ह मिटा दो स्त्री का
अस्तित्व खत्म कर दो कर्ता
या फिर कोमलांगी नारी को
वज्रांगी की दो विशेषता ।
क्या कवच पहन के निकले
या खंजर लेकर घूमे हम?
किस तरह त्राण हमारा हो?
कैसे स्वयं को बचाए हम?
ये देह काटो मारो जला डालो
आत्मा का खून न सहा जाता
कई बार फिर मरती है नारी
एक बार न उससे मारा जाता ।
द्वापर में कृष्ण सहाय हुए जब
द्रुपद सुता का चीरहरण हुआ
अब कलयुग में कौन सहाय हो
कृत्य दुश्शासन का दारुण हुआ।
द्वापर में था एक दुश्शासन
अब सहस्र दुश्शासन थे खड़े
निर्वस्त्र कर नोंचा अबला को
सहस्त्र गिद्ध थे टूट पड़े।
मरण था उस पिता का जिसने
बेटी को पुष्प सरिसा पाला था
जीवित मरण यह उस भ्राता का
बहन को रक्षा वचन दे डाला था।
सम्मान की रक्षा का वचन ले
जिस पति ने उसे ब्याहा था
पत्नी की लज्जा रह न सकी
अंतर्मन उसका भी कराहा था।
यदि ना रुका नारी का शोषण
आह उसकी निकल प्रबल होगी
शांति तिरोहित हो प्रलय होगा
सृष्टि- निरंतरता की इति होगी।
अभी भी समय है जागृत हो
अत्याचारियों का दमन करो
स्त्री का मान रक्षित हो तो
खुशहाली क्षिति की स्थिर हो।
लेखिका
- कंचन वर्मा
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