रीवा-दिल्ली उड़ान: 'हवाई चप्पल' वाले देखते रहे परछाई, नेता-करोड़पति भर रहे उड़ान


रीवा से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए बहुप्रतीक्षित हवाई सेवा का शुभारंभ बड़ी धूमधाम और एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर किया गया। विंध्य क्षेत्र के विकास में इसे एक मील का पत्थर बताते हुए प्रचारित किया गया। इस सपने के साथ वह राजनीतिक नारा भी मजबूती से जुड़ा था, जिसमें "हवाई चप्पल पहनने वाले आम नागरिक को हवाई जहाज की यात्रा" कराने का संकल्प लिया गया था। लेकिन रीवा के संदर्भ में, यह संकल्प और नारा, दोनों ही जमीन पर उतरते नहीं दिख रहे हैं।

हकीकत यह है कि जिस आम आदमी के लिए इस सेवा को शुरू करने का दावा किया गया था, वह आज भी रीवा के आसमान में उड़ते जहाज की परछाई देखने को या हवाई अड्डे के बाहर से सेल्फी लेने को मजबूर है। इसका एकमात्र और सबसे बड़ा कारण है - आसमान छूता किराया।

रीवा-दिल्ली मार्ग पर हवाई टिकट की कीमतें इतनी अधिक हैं कि यह एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के मासिक बजट से भी बाहर है। एक आम नागरिक, जो आज भी ट्रेन के स्लीपर या एसी-3 कोच में आरक्षण के लिए महीनों पहले योजना बनाता है, उसके लिए हजारों रुपये का एक तरफा हवाई टिकट खरीदना लगभग असंभव है। जब ट्रेन का सफर कुछ सौ रुपये में और बस का सफर हजार-पंद्रह सौ में पूरा हो सकता है, तब पांच से सात हजार रुपये (या उससे भी अधिक) का हवाई किराया इस सेवा को आम जनता की पहुंच से कोसों दूर कर देता है।

तो सवाल उठता है कि आखिर इन उड़ानों में सफर कौन कर रहा है? जवाब हवाई अड्डे पर साफ नजर आता है। यह उड़ान मुख्यतः नेताओं, मंत्रियों, बड़े अधिकारियों और उन करोड़पति व्यापारियों के लिए एक सुविधाजनक साधन बनकर रह गई है, जिनके लिए समय ही पैसा है और किराए की फिक्र नहीं। यह सुविधा एक "वीआईपी ट्रांसपोर्ट" बनकर रह गई है।

यह हवाई सेवा रीवा के लिए एक जरूरत थी, लेकिन यह "जरूरत" के बजाय "लक्जरी" बन गई है। जब तक किराया आम आदमी की पहुंच में नहीं आता, या "उड़ान" जैसी सब्सिडी योजनाओं का वास्तविक लाभ यहां नहीं मिलता, तब तक गरीब और मध्यम वर्ग के लिए यह केवल एक महंगा सपना ही बना रहेगा। विकास का यह प्रतीक तब तक अधूरा है, जब तक इसका लाभ समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक नहीं पहुंचता।

संवाददाता :- आशीष सोनी