मातृभाषा की उन्नति
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल'।
मतलब मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी मुश्किल है।
विभिन्न प्रकार की कलाएँ, असीमित शिक्षा तथा अनेक प्रकार का ज्ञान,
सभी देशों से जरूर लेने चाहिये, परन्तु उनका प्रचार मातृभाषा के द्वारा ही करना चाहिये।
संसार में हजार सांग रचो कौन रोकता है। भाषा में सांग नहीं रच सकोगे पकड़े जाओगे। एक चतुर और आकर्षित अनेकार्थ चुन लोगे तो एकांत में वह प्रश्न करेगा। भाषा को वस्त्र की तरह जब तक उतर ही ना दो शांति नहीं है। किंतु देह का वस्त्र भी जब छूटा रहेगा तब भी यह भाषा शेष रह जाएगी। इस सूचना को अपने भीतर कहां पर रखोगे आप, इसी का चिंतन करो। भाषा सितार है उसको साधो उसका भरसक रियाज करो। वह धैर्य और परिश्रम मांगती हैं। आज मेरी भाषा का दिन है मैं स्वयं को इस दिवस की शुभकामनाएं सबको दूं और मैं यह ऐसे प्रकट व सूचित होकर करूं कि संसार इससे जुड़ जाए, इसमें सम्मिलित हो मेरी भाषा।
देश की उन्नति चाहने वाला प्रत्येक व्यक्ति पढ़ना अपना कर्तव्य समझने लगा है।
एक उदाहरण द्वारा इसको समझेंगे.......
स्काटिश सो वर्ष बुढे़ एक व्यक्ति ने युवावस्था में गैलिक भाषा पढ़ी और इसलिए पढ़ी कि उनका स्पष्ट मत था कि यदि मेरे सामने एक ओर देश की स्वाधीनता रखी जाए और दूसरी और मातृभाषा और मुझसे पूछा जाए कि इन दोनों में एक कौन सी लोगे तो एक क्षण के विलंब के बिना में मातृभाषा को ले लूंगा क्योंकि इसके बल से मैं देश2 की स्वाधीनता भी प्राप्त कर लूंगा।
हे भैया! अब उठो और देर मत करो। अपना काँटा दूर करो। सबसे पहले अपनी भाषा का विकास करो। यह सब प्राचीन संस्कृति की जड़ है। अपनी भाषा, अपना धर्म, अपना मान-सम्मान, अपना कार्य और व्यवहार, इनमें सबमें सामूहिक प्रगति का मार्ग समानता है।
अनेक प्रकार से पढ़ाई-लिखाई की जाए, अनेक भाषाएँ सीखी जाएँ, लेकिन जब भी कोई सोच-विचार किया जाए, वह अपनी भाषा में ही जाना चाहिए।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
लेखिका
शारदा कनोरिया
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