द्वारिकाधीश श्री कृष्ण
कृष्ण को लिखा नहीं जा सकता, सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है, भीतर उतारा जा सकता है। कृष्ण को समझा भी नहीं जा सकता, महसूस ही किया जा सकता है बस, तब शायद धीरे-धीरे समझ भी आएं। कृष्ण को अनुभव करने का गहरा सूत्र अनासक्ति है, पूरी गीता का सार एक शब्द में सिमटता है ठीक वैसे ही जैसे सारे गुणों का अर्थ कृष्ण स्वयं हैं सारी कलाओं के योग उनकी लीला और उनके पूरे जीवन का सार है प्रेम, प्रेम और मोह के अंतर को स्पष्ट करते हैं मोहन। जो मोह होता तो वे गोकुल से दूर कभी द्वारिका न जा बसते।
द्वारिकाधीश जीवनपर्यन्त वृन्दावन नहीं लौटे थे, गोकुल नहीं पहुंचे। वे अपने महल में पहुंच गोपियों की पीड़ा तो समझते हैं, उद्धव के हाथ संदेश भेजते हैं पर ख़ुद नहीं जाते। वे कर्मयोगी हैं, ज्ञानयोगी भी उससे अव्वल प्रेमयोगी। वे माता-पिता का कष्ट महसूस करते हैं, बचपन याद करते हैं पर लौटते नहीं, जीवन की दिशा नहीं बदलते। हम मथुरा में कृष्ण की ओर से एक पद गाते हैं कि
ऊधौ मैया ते जा कहियो, तेरौ श्याम दुख पावै
मैया कूं सुनइयो
कोई ना खवावै मोहे माखन-रोटी
जल अचरानि करावै
माखन-मिश्री नाम ना जानूं
कनुआ कहि मोहे कोई ना बुलावै
इस पद को सुन संतप्त महसूस होता है कि कृष्ण जो एक भव्य नगरी के राजा भी हैं वे दुख में हैं, वे बचपन याद करते हैं। जो एक बार निकले तो पग नहीं फेरे, वे भव्यता के बीच कैसा महसूस करते होंगे यह भाव इस पद में है। लेकिन फिर इसी संतप्ता के बीच स्मरण हो आता है कि कृष्ण जन्मभूमि के मुख्य द्वार के ऊपर बनी प्रतिमा में कृष्ण सारथी के रूप में हैं। वे जो रणभूमि में मोह के विरुद्ध अनासक्ति की बात करते हैं, आत्मा के ज्ञान की बात करते हैं, सुख-दुखे समे कृत्वा का उपदेश देते हैं। जिस स्थान पर वे पैदा हुए उस के द्वार पर ही सारथी के रूप में हैं। अपने बालकाल से ही मोह को छोड़े वे जीवन की रणभूमि में योगी की तरह जीते हैं। कृष्ण से यह सीखना ही महत्वपूर्ण है।
फिर मोह को छोड़ प्रेम को अपनाने की यह प्रक्रिया अंतस से ही होगी। जीवन को कर्मयोग की समग्रता में अपनाने का संदेश जैसे कृष्ण देते हैं उस पर कितनी ही टीकाएं हुई हों लेकिन उसे बिना जिए नहीं जाना जा सकता। कृष्ण को आत्मा के उस सोपान तक उतारे बिना नहीं जाना जा सकेगा, वह सोपान जो जीवन की नदी तक पहुंचती हैं जिसके आचमन से जन्मों के भेद खुलते हैं
लेखक -
दीपक शर्मा
मुरैना, मध्यप्रदेश
0 Comments