लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका 

ये आज से ही नही अपितु आजादी के बाद से बनी सरकारों में विपक्ष की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही हैं ये किसी से छिपी नहीं हैं यह हम सब के सामने स्पष्ट हैं। 

कहते हैं लोकतंत्र में चार स्तम्भ होते हैं - न्यायालय, सरकार, विपक्ष और पत्रकारिता। यदि इन चार स्तम्भ में से एक भी अपने दायित्व का निर्वहन ठीक से ना करें तो लोकतंत्र पर कुठारा घात होता हैं और लोकतंत्र को छति पहुंचती हैं। बात सिर्फ लोकतंत्र की नहीं हैं बात तो ये है लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका।

आज ये प्रश्न कितना लाज़मी हैं सवाल इस पर हैं कि सरकार में विपक्ष कितना महत्वपूर्ण हैं और क्यों । सच कहूं तो प्रश्न भी यही हैं।हम हमेशा से यही सुनते आये हैं कि जब किसी भी लोकतांत्रिक शासन में विपक्ष मजबूत हो तो  सरकार अपनी मनमनी (तानाशाही) नहीं कर सकती क्योंकि उसे पता हैं की अगले मोड़ पर विपक्ष पहरेदार की तरह खड़ा है जो हमें घेर लेगा विपक्ष मजबूत हो तो सरकार हर फैसले को सोच समझकर सामने लाती हैं इसका एक अच्छा उदाहरण हमें उत्तर प्रदेश सरकार से मिलता हैं। 

हमें आये दिन सुनने को मिलता है कि विपक्ष सरकार पर ये सवाल उठाती हैं की उन्हें अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया जाता, उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा हैं और जब बोलते हैं तो उनके माइक बंद कर दिये जाते हैं, बात बड़ी तो है ही और सोचने पर मजबूर कर देने बाली है, क्या सचमुच ऐसा हो रहा हैं? क्या सचमुच विपक्ष को दवाया जा रहा हैं? या फिर विपक्ष सिर्फ भ्रम फैला रहा हैं। अगर सच है तो कितना?

 प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है आप इतिहास के पन्ने पलटिये और देखिये सरकार में विपक्ष कितना महत्वपूर्ण था और आज कहां हैं फिर आंकलन करिये। 1947 के बाद से और आज 2023 तक लगभग 75 बर्षों में भारत ने एक से बढ़कर एक प्रधानमंत्री(शासक) देखे हैं  जो अपने शासन काल में भारत के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है आप चाहे देश के पहले प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी को देख लें जिन्होंने भारत को शून्य से शिखर तक ले जाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, या फिर  चाहे पाकिस्तान को दो टुकड़ों में करने वाली और उन्हें घुटने टेकने पर मजबूर करने बाली श्रीमती इन्द्रा गांधी जी हो, या जब पूरे विश्व की नजरें हम पर गडी़ थी तब ऐसी स्थिति में पोखरण में परमाणु परीक्षण करने बाले अदम्य शाहस महान प्रतिभा के धनी श्री अटल विहारी वाजपेयी हो, या फिर 1992 हो या 2008 की आर्थिक मंदी जिससे पूरा विश्व जूझ रहा था ऐसे हालात में भारत की अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने बाले महान अर्थशास्त्री डाँ. मनमोहन सिंह हो या फिर कोई ओर। हर शासक का अपने दौर में महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं।और इन हर शासको में एक समानता थी और वो थी विपक्ष की भूमिका। ये शासक विपक्ष की हर बात को सालीनता से सुनते थे, मशवरा करते, सवाल जवाब करते और जो निर्णय देश और सबके हित में होता फैसला लेते थे। सरकार और विपक्ष एक दूसरे के पूरक थे। 

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सरकार और विपक्ष में ऐसी समरसता नही हैं जैसे मानों दोनो में जमीन और आसमान का फर्क हो। 

एक दौर था जब सरकार और विपक्ष दोनों में ऐसा सामंजस्य था  भले दोनों की पार्टियां और विचार  अलग थे लेकिन मंजिल एक थी आप उस समय को देखिए जब देश में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पहली सरकार बनाई तो विपक्ष के उन नेताओ को मंत्रिमंडल सौंपा जो अच्छे जानकार थे। उनमें कानून के अच्छे जानकार और हमें संविधान जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ देने बाले डाँ. भीमराव अंबेडकर जी को कानून मंत्री बनाया, फिर कश्मीर से परिचित पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को कश्मीर मामले का मंत्री बनाया, इस समय सिर्फ एक दो नही पांच मंत्री बनाये जो गैर कांग्रेसी थे और इतना ही नहीं जब 1992 में पी.वी. नरसिम्हा राव जी की कांग्रेस की पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी और हमें कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी बात रखनी थी तब नरसिंम्हा राव जी ने अपने दल से किसी को नहीं भेजा बल्की उस समय के विपक्ष के नेता अटल विहारी वाजपेय को भारत का प्रतिनिधित्व सौंप दिया था और हम विजय होकर लोटे थे ये था हमारा भारत, ये थी हमारी सरकारें और ऐसा था हमारा विपक्ष। 

क्या हमें फिर से भविष्य में ऐसे दिन, और ऐसी सरकारें देखने को मिलेगी! पता नहीं। 

और क्या आज ऐसा हैं?? 

कभी राम मनोहर लोहिया ने कहां था की विपक्ष उस दर्पण की तरह साफ और उज्जवल होता हैं जो हमें अपनी नाकामियां दिखाता हैं सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण हैं और इसको देखते रहना चाहिए। 

लेकिन फिर भी सवाल तो वही हैं विपक्ष??  

कहा जाता हैं पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता हैं और जब विपक्ष लड़खड़ाने लगे और इसको सहारे की जरूरत हो तो पत्रकारिता को विपक्ष का सहारा हो जाना चाहिए परंतु आज के दौर में पत्रकारिता स्पष्ट और स्वच्छ नहीं हैं यह सरकार की तरफ झुकी हुई नजर आती हैं। मैं सिर्फ प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा हूं आप समाचार पत्र पढ़िये या समाचार चैनलों पर देखिये फिर तय करिये की इसका सरकार की तरफ झुकाऊ हैं या नहीं। अगर पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है तो किसके साथ हैं? यह महत्वपूर्ण सवाल हैं।

 कहां जाता हैं ऐसे दौर में पत्रकारिता को विपक्ष के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए लेकिन मुझे लगता हैं चलना तो दूर पत्रकारिता विपक्ष के साथ खड़े होना भी नहीं चाहती और यही लोकतंत्र और संविधान के लिए घातक हैं। 

अब इस विषय में मैं क्या कहूं बस इतना कहना चाहूंगा की न्यायालय, सरकार, विपक्ष और पत्रकारिता ये लोकतंत्र के एक दूसरे के पूरक होते हैं, जहां ये चारों एक साथ मिलकर चलेंगें वो देश सुदृढ़, सम्पन्न, शक्तिशाली और महान देशों की सूची में अव्वल होगा। 


लेखक - मुकेश कुमार, शुभ (रैपुरा जिला पन्ना)