लोकतंत्र, संविधान और ठगी सी जनता
भारत विविधताओं का देश है और अनेकता में एकता यहां की पहचान रही है। इस देश की सबसे बड़ी खुबसूरती यह है की इतना सब होने के बाद भी हमारा लोकतंत्र और संविधान जिंदा है। लोकतंत्र का अर्थ हमेशा से यही बताया गया है जनता का ,जनता के लिए ,जनता द्वारा। और संविधान का अर्थ यही बताया गया की आपके हितों का हर हाल में प्रहरी हमारा संविधान है। सबसे पहले लोकतंत्र की बात करें तो लोकतंत्र का सीधा सा अर्थ निकलता है ऐसे तंत्र जिसमें लोग शामिल हों और हैं भी लेकिन हमारी नीतियां इस लोकतंत्र पर समय समय पर कुठाराघात करती नजर आती हैं राजनीति और कुर्सी की लालच ने लोकतंत्र पर अप्रत्यक्ष हमले किए हैं इसमें कोई दो राय नहीं। जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है की वो लोकतंत्र को बचाए रखेंगे लेकिन वही इस लोकतंत्र को मिटाने पर उतारू हैं। कोई भी राजनीतिक पार्टी हो भ्रष्टाचार से इतर नहीं है, भ्रष्टाचार में गले तक डूबी हुई है। बेशक आपके मन में प्रश्न उठेगा कैसे? चुनाव आयोग कहता है चुनाव में प्रत्याशी द्वारा खर्च किए गए धन की सीमा इतनी लाखों में है लेकिन क्या अपने कभी सोचा है सिर्फ नामांकन भरने मात्र में प्रत्यासी करोड़ों उड़ा देते हैं। इसके बाद उसके प्रचार वाहनों का व्यय और उसकी टीम का खर्च, दारू, मुर्गा, साड़ी, कंबल, मोबाइल वितरण, नकदी वितरण आदि का खर्च कई करोड़ों में चला जाता है। अब आप स्वयं सोचिए जो इतना खर्च करके लोकतंत्र बचाने के लिए चुनकर जाएगा वह लोक और तंत्र की धज्जियां नहीं उड़ाएगा यह हो ही नहीं सकता। राजनीति एक व्यवसाय की तरह है मोर इनपुट लगाओ मोर आउटपुट पाओ। अब यही चुने प्रतिनिधि आपके हितों की रक्षा न करके अपनी उसूली में लगेंगे और जब उसूली के लगेंगे तो सारी व्यवस्था अपने आप भ्रष्ट हो जायेगी। और लोकतंत्र की आस लेकर बैठे लोग हर बार इन हाथी के दांत वाले घाघ नेताओं द्वारा ठगे के ठगे नजर आते हैं। संविधान कहता है की जनता को उसके मूलाधिकार दिए गए हैं जो की मौलिक अधिकार भारत के संविधान के भाग 3 (अनुच्छेद 12 से 35) वर्णित हैं। ये भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए वे अधिकार हैं जो सामान्य स्थिति में सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते हैं और जिनकी सुरक्षा का प्रहरी सर्वोच्च न्यायालय है। लेकिन हर बार मूल अधिकारों की मूल (जड़) काट दी जाती है आज शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी आदि सरकार के हाथों से निकल कर निजी करण में जा रहे हैं जिनकी महंगाई जनता को रीढ़ तोड़ देगी।
मूल अधिकार जिसमें समता का अधिकार, स्वंत्रतत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार, संवैधानिक उपचारों के अधिकार असहाय सा नजर आता है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे मन में असमता का बीज आज भी पनप रहा है हम जातिगत रूप से ऊंच नीच के खेल में वैश्विक रूप से सबसे अग्रणी हैं। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार कहता है की देश स्वतंत्र है और व्यक्ति को स्वतंत्रता से जीने का हक है अपने धर्म या किसी और के धर्म को मानने न मानने नास्तिक रहने का संविधान की मर्यादा में रहकर अधिकार है लेकिन व्यक्ति और व्यक्ति की सोच को बेड़ियों में जकड़ा जा रहा है। आज धार्मिक उन्माद में हमारा देश सारे विश्व में अपनी अलग पहचान बना चुका है, जो राष्ट्र अब तक धर्म निरपेक्ष था और संविधान की उद्देशिका भी यही कहती है अब उसे बहुमत के आधार पर तौला जाने लगा है और इस बहुमतीकरण के प्रचार प्रसार के लिए तमाम प्रचकारों के मंच अपनी अपनी शेखी बघारते नित्य दिखाई दे जाते हैं। शोषण के विरुद्ध अधिकार मिले हैं लेकिन आवाज उठाने वालों पर ही दमन की कार्यवाही करना अब आम बात हो गई है यदि कोई व्यक्ति या संस्था सरकार से सवाल कर ले तो वह सारी एजेंसियों की नजर में कांटे के माफिक चुभने लगता है किसान मजदूर के अधिकार आज तक सरकारें तय ही नहीं कर पाईं और यदि कुछ तय भी हुआ तो वह मात्र फाइलों में धूल फाँक रहा है । शिक्षा इतनी महंगी हो गई है की आज निजी स्कूलों में कक्षा 1 की फीस 20 हजार से लेकर लाखों के ऊपर तक है। शिक्षा के सरकारी ढांचे आगे खत्म हो गए तो आम जन अपने बच्चों को पढ़ाई कराने से डरने लगेगा जो आगे चलकर पुनः एक बड़ी विषमता, असमानता को जन्म देगी।
देश जैसे जैसे प्रगति कर रहा है इन लोकतंत्र के प्रहरियों द्वारा वैसे वैसे उनके मूलाधिकारों पर शिकंजा कसा जा रहा है और उसकी जड़ है इन्हीं लोककल्याणकारी जनप्रतिनिधियों का भ्रष्टचार जिसकी चपेट में सारा जन समुदाय है।
लेखक
योगेश योगी किसान
सेमरवारा, सतना
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धन्यवाद नो फिकर
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