अदाकारी का कोहीनूर इरफ़ान खान

आज से तीन वर्ष पहले खबर थी कि एक सितारा पृथ्वी से टकराएगा लेकिन यह नहीं पता था कि अदाकारी का अनूठा सितारा दूर कहीं खो जाएगा. दूरदर्शन हो या बॉलीवुड या फिर हॉलीवुड अपनी अदाकरी का लोहा मनवाने वाले अभिनेता इरफ़ान खान हमारे मध्य नहीं रहे किन्तु उनके अभिनय की अमिट छवि सदैव मानस-पटल पर जीवित रहेगी. दूरदर्शन पर श्रीकांत, चंद्रकांता, चाणक्य, भारत एक खोज, जय हनुमान, जस्ट मोहब्बत, द ग्रेट मराठा जैसे धारावाहिक में अपनी अदाकारी दिखाने वाले इरफ़ान खान ने हिंदी सिनेमा में सलाम बोम्बे से अपनी अदाकरी की पारी शुरू कर अपने अभिनय की छाप छोड़ी, इरफ़ान खान पर सबसे पहले दर्शकों का ध्यान 2001 की फ़िल्म कसूरसे गया जिसमें अधिवक्ता के किरदार में उन्होंने जान डाल दी थी, इरफ़ान खान की उल्लेखनीय फिल्मों एवं किरदारों का जिक्र करें तो हासिलफ़िल्म के छात्र नेता रणविजय सिंह के किरदार से चर्चा की शुरुआत करना बेहतर होगा जिसका संवाद तुमको याद रखेंगे गुरुइस अवसर के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है, विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित मक़बूलमें निभाया गया संजीदा किरदार कौन भूल सकता है, जिसके उपरांत रोगफ़िल्म का उल्लेख होना आवश्यक है जिसका गीत खूबसूरत है वो इतना कहा नहीं जाताफ़िल्म प्रदर्शित होने के 15 वर्ष उपरांत आज भी हर दिल अज़ीज है. वर्ष 2006 में आई दा नेमशेकमें निभाए अशोक एवं 2007 में प्रदर्शित लाइफ इन ए मेट्रोके मोंटी के किरदार को समीक्षकों के साथ-साथ दर्शकों ने भी काफ़ी सराहा.

वर्ष 2008 में प्रदर्शित सन डेएवं क्रेज़्ज़ी 4” से जहाँ उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को गुदगुदाया वहीँ वर्ष 2009 में स्लमडॉग मिलियनेयरसे उन्हें अंतराष्ट्रीय पटल पर सराहना के साथ-साथ ख्याति भी मिली. उस वर्ष हिंदी सिनेमा में जहाँ उन्होंने शाहरुख़ खान के साथ कृष्ण-सुदामा के वर्तमान परिदृश्य पर आधारित फ़िल्म बिल्लूमें काफ़ी संजीदा अभिनय किया वहीँ अमेरिका में हुए हमले पर आधारित न्यू यॉर्कमें पुलिस ऑफिसर का दिलचस्प किरदार निभाया था. वर्ष 2012 इरफ़ान के लिए काफ़ी सफ़ल समय रहा जिसमें हॉलीवुड फ़िल्म लाइफ़ ऑफ़ पाईने सराहना के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय पुरूस्कार भी जीते साथ ही हॉलीवुड की सबसे लोकप्रिय श्रृंखला स्पाइडर मैनसे विश्व पटल पर काफ़ी लोकप्रियता भी उन्हें हासिल हुई. उनकी हिंदी फ़िल्म पान सिंह तोमरमें किए गए अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरुस्कार से नवाज़ा गया वहीँ उनका संवाद बीहड़ में बाघी होते है, डकैत मिलते है पार्लियामेंट में मिलते है
भारत के गाँव-गाँव तक चर्चित हुआ. वर्ष 2013 में शाहिब बीवी और गैंगस्टरका संवाद हमारी गाली पर भी ताली बजती हैयुवाओं में काफ़ी लोकप्रिय रहा तथा डी-डेफ़िल्म का संवाद आज याद करना होगा सिर्फ इंसान गलत नहीं होता, वक़्त भी गलत हो सकता हैजो इरफ़ान खान के असमय निधन पर सटीक प्रतीत होता है. वहीं द लंच बॉक्सने हिंदी सिनेमा की कलात्मकता में चार चाँद लगा दिए. वर्ष 2014 में प्रदर्शित गुंडेएवं हैदरतथा वर्ष 2015 में पीकूएवं तलवारने उनके अभिनय के भिन्न-भिन्न पहलुओं को दर्शकों के समक्ष रखा. वर्ष 2016 में मदारीमें निभाए गए एक व्यथित पिता के किरदार को कौन भूल सकता है. लेकिन वर्ष 2017 में हिंदी मीडियमउनके कैरियर का मील का पत्थर साबित हुई जिसमें उन्होंने हास्य के माध्यम से भारतीय शिक्षा प्रणाली की पोल खोल कर रख दी. अब बात करें अभिनेता इरफ़ान खान की अंतिम प्रदर्शित फ़िल्म अंग्रेजी मीडियमकी तो एक पिता और पुत्री के रिश्ते को काफ़ी संजीदगी के साथ इरफ़ान खान के रुपहले पर्दे पर प्रदर्शित किया है. कैंसर जैसी भयानक बीमारी के चलते पद्मश्री से सम्मानित इरफ़ान खान आज हमारे मध्य नहीं रहे किन्तु उनकी अदाकरी, संवाद और आँखों से अपने मनोभाव प्रदर्शित करने की कला सदैव हमारे मन-मस्तिष्क में जीवित रहेगी...

लेख़क : अभिनव मुखुटी (राजा)