बाजार-वाद के मध्य सार्थक पत्रकारिता
संविधान के चतुर्थ स्तम्भ की चर्चा करते
हुए उसे संदेह की नज़रों से देखने या उसे गुनह-गार की भांति कठघरे में खड़ा कर देना
बेहद आसां है किन्तु उसको समझना तथा पत्रकारिता और मीडिया में विभेद की चर्चा करना
काफ़ी मुश्किल, इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो पाएंगे
कि राजा-महाराजाओं के दौर में ढ़ोल नगाड़ों के माध्यम से राजा-महाराजाओं के सन्देश
या निर्देश को आम जन-मानस तक पहुंचाया जाता था किन्तु वर्तमान दौर में उक्त कार्य
को अंजाम हमारी मीडिया देती है अर्थात सत्तारूढ़ समूह की निष्ठावान चापलूसी और
चाटुकारिता पूर्णत: स्वार्थ परख मीडिया का दायित्य बन गया है और यदि भूलवश किसी
मीडिया घराने के अध्ने से कर्मचारी ने सत्य लेखन की ज़ेहमत उठाई तो उसे अपनी नौकरी
से हाथ धोना पड़ता है...
भारतीय सभ्यता में पत्रकारिता के इतिहास
पर नज़र डाले तो पाएंगे कि पत्रकारिता केवल घटित घटनाओं की सूचना देना मात्र नहीं
थी अपितु यह एक मकसद पूर्ण बदलाव का पथ था जिस पर चलना बेहद मुश्किल हुआ करता था, जिसकी
शुरुआत भारत वर्ष में जेम्स अगस्टन हिक्की ने 29 जनवरी 1780 के दिन की
थी और उनके अखबार के द्वारा किये गए खुलासों ने ब्रिटिश सरकार की नींदें हराम कर
दी थी, जिसकी आहूति भी हिक्की को अखबार एक वर्ष
उपरांत बंद करते हुए चुकानी पड़ी थी, इसी
अनुसार राजा राम मोहन राय द्वारा अखबार के माध्यम से भारतीय सभ्यता में विराजमान
रूढीवादी कुरीतियों पर किये प्रहारों को भी विरोध का सामना करना पड़ा था, इसी
प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर बाल गंगाधर तिलक तक ने भी अखबार के सहारे
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आवाज़ बुलंद की थी वहीँ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी अपने राष्ट्र-भक्ति एवं
समाज में बदलाव के सन्देश भी अखबार के माध्यम से ही दिए थे, उक्त
तथ्यों से आप स्वयं समझ सकते है कि कलम और अखबार में कितनी ताक़त होती है...
ये सभी बातें केवल और केवल पत्रकारिता के
सकारात्मक पक्ष को दिखलाती है किन्तु मीडिया का इतिहास सदैव ही स्वार्थ और व्यापार
से घिरा रहा है, अर्थात मीडिया शब्द की उत्पत्ति ही
अमेरिका से हुई है जहाँ ऑस्ट्रेलिया में जन्में रूपड़ मड़रोक जैसे मीडिया विशेषज्ञ
जो घाटे में चलने वाले असफल मीडिया हाउस और अख़बारों को फ़ायदे की चादर ढँक देने में
माहिर थे ऐसे धुरंधर द्वारा मीडिया को चलाने की पद्धति थी कि गॉसिप्स अर्थात
चटकारे भरे समाचारों, जनमत निर्माण तथा विज्ञापन को सत्य की
तुलना में अधिक तवाज्जुव दी जाये और उनका मानना था कि धन और संसाधन के बिना मीडिया
का कोई अस्तित्व नहीं है, जो विचारधारा वर्तमान समय में कहीं न
कहीं भारतीय मीडिया घरानों के साथ-साथ समाचार पत्र और समाचार चैनल द्वारा प्रस्तुत
समाचारों के रूपांतरण में भी देखी जा सकती है अर्थात वास्तविक समाचारों की तुलना
में गॉसिप्स को सर्वाधिक प्राथमिकता प्रदान की जाने लगी है...
वर्तमान मीडिया की बात करें तो इन्होंने
देश की अर्थ-व्यवस्था से लेकर बेरोजगारी तक और देश में बढ़ती दुष्कर्म की घटनाओं से
लेकर महंगाई तक की ख़बरों को नज़र-अंदाज़ करते हुए सिनेमा को प्राथमिकता देते हुए
प्रियंका चोपड़ा के हेयर स्टाइल से लेकर निक जोन्स की उम्र तक, सलमान खान
की शादी कब होगी के प्रश्न से लेकर विराट-अनुष्का की शादी के मेहमानों के फेरिस्त
इनकी नज़रों में अधिक महत्वपूर्ण रही है और हाँ मीडिया द्वारा सैफीना उपनाम से
नवाजे गए अभिनेता सैफ अली खान और अभिनेत्री करीना कपूर खान के पुत्र तैमूर अली खान
को दिन-व-दिन बढ़े होते आप चैनल के माध्यम से देख ही सकते है. सिनेमा की खबरें दिखाना
गलत नहीं किन्तु TRP और विज्ञापन की होड़ में केवल बड़े नामों
या ब्रान्डों की नुमाइश करना और आर्टिकल 15, मुल्क, शाहिद, अलीगढ, सेक्शन 375 जैसी
मौलिक फ़िल्मों की बड़े सितारों की नामौजूदगी और कम बजट के चलते उपेक्षा करना तो
अनुचित है. वहीँ मीडिया सिनेमा के समाचार के बाद सर्वाधिक प्राथमिकता क्रिकेट खेल
के समाचारों को देते है जिनमें क्रिकेट में विजय होने के उपरांत खिलाडियों को
सर-आँखों पर बिठा देते है और क्रिकेट खिलाडियों को खुदा के समतुल्य की पदवी से
नवाज्नें लगते है किन्तु केवल एक पराजय के उपरांत ही उन खिलाडियों की योग्यता पर
प्रश्नचिन्ह लगा देते है और एक न्यायाधीश की भांति अपना निर्णय सुनाने लगते है
जबकि इनका दायित्व है कि केवल समाचारों का प्रसार करना ना कि स्वयं के मनोभावों का
प्रदर्शन करना, साथ ही क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों की
मौजूदगी समाचार पत्रों और समाचार चैनलों में बेहद कम ही देखने को मिलती है यहाँ तक
की भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी को भी अपने समाचारों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है
किन्तु सानिया मिर्ज़ा के वस्त्रों की चर्चा से लेकर शादीशुदा जीवन तक, सायना
नेहवाल, मैरी कॉम, मिताली
राज और गीता फोगाट पर बनी या बन रही फ़िल्मों और ज्वाला गुट्टा के निजी रिश्तों पर
विशेष कार्यक्रम के लिए इनके पास काफ़ी वक्त होता है किन्तु हमारे देश की भयानक
विडम्बना है कि इनके खेलों में तरक्की के आंकड़े हमारी मीडिया का ध्यान आकर्षित ना
कर सके...
मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी की बात करें
तो मीडिया द्वारा नोट-बंदी के उपरांत सहकारी बैंकों में जमा की राशियों की चर्चा
से लेकर स्वच्छ भारत अभियान के 5 वर्ष पूर्ण होने के उपरांत प्रचार-प्रसार
पर हुए खर्चे को नज़र अंदाज कर दिया गया, देश में
बढ़ती महंगाई और बढ़ते प्याज के दामों के जिक्र के स्थान पर वित्तमंत्री महोदया का
बयाँ ज्यादा सुर्ख़ियों में रहा कि मैं प्याज और लहसुन नहीं खाती, JNU मामले की
चर्चा करें तो वहां के छात्रों के वीडियो दिखाकर देशद्रोही साबित कर दिया गया और JNU बंद करने
की बात समूचे राष्ट्र से उठने लगी किन्तु JIO विश्वविद्यालय
को प्राप्त अनुदान और JIO विश्वविद्यालय से JNU के
सम्बन्ध का उल्लेख किसी भी समाचार में देखने को नहीं मिला एवं JNU में
नक़ाबपोश दहशतगर्दों द्वारा छार्त्रो के साथ की गई मारपीट पर मौजूदा सरकार तथा
सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न करने की हिम्मत किसी भी समाचार पत्र या चैंनल में
देखने को नहीं मिली, द वायर का नाम तो आपने सुना ही होगा
जिसके द्वारा वर्तमान गृहमंत्री के पुत्र जय-शाह की कंपनी को हुए 16 हज़ार गुना
मुनाफ़े का खुलासा किया गया था किन्तु मीडिया ने एक वर्ष उपरांत जय शाह के भारतीय
क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के सचिव पद पर आसीन होने पे उनके नाम के कसीदें ही पड़े गए, भारत देश
के प्रधानमंत्री के अमेरिका यात्रा को हाउडी मोदी नाम से संबोधित किया गया किन्तु
उस यात्रा का मुख्य लक्ष्य का ताना-बाना अमेरिका में आगामी समय में होने वाले
राष्ट्रपति चुनाव अर्थात डोनाल्ड ट्रम्प के अप्रवासी भारतीयों के मध्य
प्रचार-प्रसार से था किन्तु यह तथ्य समाचारों में नदारद ही नज़र आया. वहीँ देश के
सबसे संवेदनशील दिन अर्थात अयोध्या मामले के निर्णय के दिन भी पत्रकारिता के नैतिक
मूल्यों को तांक पर रख के TRP का खेल जारी रखते हुए समाचार चैनलों
द्वारा डिबेट प्रसारित की गई साथ ही दक्षिण भारत के तथाकथित इस्लामिक राजनेता
द्वारा दिए गये भड़काऊ भाषण को भी दोहरा-दोहरा कर दिखाने से भी भारतीय समाचार चैंनल
बाज नही आये...
क्षेत्रीय समाचारों से लेकर राष्ट्रीय
समाचार पत्रों एवं चैनलों के गिरते स्तर की बात करें तो इसका स्पष्ट कारण हॉकर-वाद
है, जी हाँ क्षेत्रीय समाचारों के लिए प्राय:
अधिकांश समाचार हॉकर ही जुटाते है, किन्तु यह
तथ्य विचारणीय है कि जिस प्रकार बीमार शरीर के ईलाज की जिम्मेदारी हम शिक्षित और
मानक डिग्री प्राप्त चिकित्सक को देते है ना की झोला-छाप दवाई देने वाले को वैसे
ही पुल से लेकर ईमारत की जवाबदेही हम शिक्षित और मानक डिग्री प्राप्त अभियंत्रि को
देते है ना कि मजदूर को वहीं अपने कोर्ट-कचेरी के मामलों की बाग़-डोर हम शिक्षित और
मानक डिग्री प्राप्त अधिवक्ता को सौंपते है ना कि भृत्य को तो आप ही अपने
मन-मस्तिष्क में विचार करें कि शिक्षित पत्रकारों के स्थान पर समाचार पत्र और
समाचार चैनल के मालिक इन हॉकरों को अधिक तवाज्जुव क्यों देते है तो इसका
प्रतिउत्तर है की इनको एक सुनिश्चित पगार नहीं देनी होती है साथ ही ये वर्ष में 2 बार
अर्थात 26 जनवरी और 15 अगस्त को
विज्ञापन की बरसात करते है जिसका कुछ प्रतिशत उक्त हॉकर को प्रदान किया जाता है
अन्य माहों में भी ये हॉकर पुलिस थाने से लेकर शासकीय दफ्तरों तक से विज्ञापन के
नाम पर कमाई कर मालिकों को मुनाफ़ा पहुंचाते है, फिर भी
भारतीय संविधान के चतुर्थ स्तम्भ पत्रकारिता की कमान संविधान में वर्णित अनुच्छेद 19(1)क के आधार
पर 10वीं-12वीं पास
हौकरों को सौपी जा रही है और पान ठेले-वाले से लेकर चाय वाले तक के पास श्रमजीवी
पत्रकार का कार्ड उपलब्ध है...
ऐसे हालातों में समस्त पत्रकारों पर
प्रश्नचिन्ह खड़े करने से पूर्व यह विचार करना भी आवश्यक है कि 1% ही सही पर
बेखौफ़, निष्ठावान और ईमानदार पत्रकार भी आज
मौजूद है जो भू-माफियाओं से लेकर नक्शलवाद तक और नोट-बंदी से लेकर बुलेट ट्रेन तक
के सच को उजागर करने की हिम्मत रखते है जो कहीं न कहीं सार्थक पत्रकारिता के
अस्तित्व को सुरक्षित रखने का निरंतर प्रयास भी कर रहे है...
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