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कहानियाँ सुनाती है कई किस्से , एक किस्सा "सिपाही" का भी

 



सिपाही 


उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के बबेरू तहसील के एक छोटे से गाँव में एक बुज़ुर्ग रहा करते थे जिनको गाँव वाले बाबू जी कह कर पुकारा करते थे। उनका वास्तविक नाम जनाब अब्दुल सलीम खां/मुहम्मद सलीम खां था परन्तु द फोर्ड फाउंडेशन कोलकाता में सुरक्षा प्रहरी लेकिन शायद अनौपचारिक दीवान होने के कारण उनको गाँव वाले बाबू जी के ख़िताब से पुकारने लगे।


उनके चार पुत्र और एक पुत्री थे तथा आर्थिक कमज़ोरी के कारण इनका लालन-पालन इनके मामा के द्वारा किया गया जो गाँव के ज़मीदार हुआ करते थे । इसी कारण अंतिम पड़ाव में इन्होंने कोलकाता जाकर कंपनी ज्वाइन की ,वापस आने के बाद (इस्तीफा) इन्होंने अपने बड़े लड़के की शादी कर दिया पर वो कुछ समय बाद परिवार से अलग रहने लगे और वो अपने परिवार को संभालने लगे इसलिये परिवार का भार इनके दूसरे बेटे ( जनाब अब्दुल अज़ीज़ खां बरकाती ) पर आ गयी । इन्होंने इंटर तक पढ़ाई की उसके उपरांत पढ़ाई को विराम दिया और इन्होंने कमाने के उद्देश्य से मुम्बई जाने का फ़ैसला लिया क्योंकि परिवार का भरण-पोषण जो करना था परन्तु किसी कारणवश न जा सके और घर वापस आ गए । काफ़ी मशक्क़त और दिक्कतों (पर्याप्त मात्रा में फसलों का पैदावार न होना) का सामना करते हुए घर का भरण पोषण चलता रहा फिर पता चला कि पुलिस विभाग में आरक्षी पद पर नौकरी निकली है तब इन्होंने इस पद पर आवेदन किया फिर बाकी प्रक्रिया होने के बाद इनका चयन आरक्षी पद पर हो गया (जिनका वेतन 180 रुपये प्रतिमाह था) जिससे काफी उत्साहित हुए घर में खुशियों को माहौल सा छा गया परंतु कुछ रिश्तेदारों को जलन भी हुई कि इतनी गरीबी थी और आज ये पुलिस में हो गये। इस प्रकार जिम्मेदारियों को समझते हुए इन्होंने अपने छोटे भाइयों को भी पढ़ाया जिसमें एक संग्रह अमीन हुये और बाकी का छोटा व्यापार चलता रहा और फ़िर ख़ुद की शादी से लेकर अपने बाकी भाई और बहन की शादी की इस प्रकार अपने फर्ज़ को अंजाम दिया तथा अब घर में काफी हद तक तंदस्ती दूर हो चुकी थी ।

सीख:- 

"सफलता पाने के लिए संघर्ष करते रहना चाहिए व बीते कल को याद करते हुए अहंकार को पनपने से बचते रहना चाहिए।"


जब उन्होंने (जनाब अब्दुल अज़ीज़ खाँ) नौकरी ज्वाइन की तो प्रशिक्षण के दौरान प्राप्त वेतन से चंद रूपए(80 रुपये) अपने पास रखते और बकाया राशि परिवार के लिए दे देते थे । कुछ समय बाद वेतन में वृद्धि हुई और 280 रुपये हो गयी फिर भी पहले जैसा रवैया अपनाते हुए चंद रुपए ही अपने पास रखते इस प्रकार सफ़र चलता रहा । तैनाती जिस क्षेत्र में हुई वहाँ इनको किराए से रहने हेतु एक कमरे की आवश्यकता पड़ी जिसमें इनके एक दोस्त ने अपने नज़दीकी क्षेत्र में एक कमरा दिखाया परन्तु मकान मालिक ने कहा कि पहली बात तो ये एक सिपाही है व दूसरी बात कि बाँदा जिले का है और इन दोनों कारणों से हम इनको मकान किराये हेतु नहीं दे सकते तब इनके दोस्त ने कहा कि आप यकीं जानिए कि यह सिपाही औरों जैसा नहीं है एक बार आप मेरे कहने से इनको रख कर देख लीजिए और यदि कोई समस्या आती है तो आप मुझे बताए व इनको हटा सकती हैं तब मकान मालिक ने कहा कि एक-दो दिन का समय दीजिए बताते हैं। इस प्रकार अगले दिन उन्होंने उन सिपाही को रहने की अनुमति दे दी। जब ये रहने लगे तो धीरे-धीरे आपस में मेलजोल बढ़ता गया। अक्सर वो लोग देखते कि ड्यूटी करने के बावजूद भी पांचों वक़्त की नमाज़ पढ़ता है व इधर-उधर की बातों से दूर रहता है। सिपाही को तन्हाई में अक्सर रोते हुए देख एक दिन मकान मालकिन ने पूछा कि बेटा आख़िर तुम रोते क्यों हो जबकि शायद तुम्हें किसी बात की तक़लीफ़ न होगी क्योंकि नौकरी कर ही रहे हो तब सिपाही ने बताया कि हाल में ही मेरी माँ का साया मेरे सर से उठ गया और उनकी याद बहुत आती है इसलिए आँखे नम हो जाती हैं। एक बार गर्मी के मौसम में मकान मालिक के लड़के व सिपाही छत पर सो रहे थे लेकिन सुबह के वक़्त हल्की ठंड की वज़ह से सिकुड़ रहे थे उसी वक़्त मकान मालकिन का छत पर जाना हुआ तो देखा कि ठंड की वज़ह से ये हाल है तो मकान मालकिन ने अपने लड़के को चादर ओढ़ा दी और लौटने लगीं फिर ख़्याल आया कि देखो सिपाही माँ की याद करता है काश उसकी भी माँ होती तो चादर ओढ़ा देती इतना सोचते-सोचते इन्होंने सिपाही को भी चादर ओढ़ा दी और अब मकान मालिक-मालकिन इनको अपने बड़े बेटे के रूप में मानने लगे। सिपाही भी इनके हर काम में अक्सर हाँथ बटाने लगे। इस प्रकार घनिष्ठता बढ़ती गई और किरायेदार व मकान-मालिक एक परिवार की तरह रहने लगे।


अंत में काफ़ी समय बीतने के बाद अर्थात घनिष्ठता बढ़ने पर बताया कि शुरू में जब रहने के लिए हाँ कहा तो अपना स्वार्थ देखते हुए कहा कि एक सिपाही जब मेरे घर में रहने लगेगा तो जल्दी कोई हमसे कुछ उल्टा नहीं बोल पाएगा लेकिन संक्षिप्त रूप से कहूँ तो तुम्हारे इस व्यहार(ईमानदारी, अपनेपन जैसे) से ही तुम हमारे परिवार के एक सदस्य जैसे बन गए।


अपने विभाग में भी एक ईमानदार सिपाही के रूप में प्रचलित हुए तथा ईमानदारी के साथ साथ अपना स्वभाव भी सभी के प्रति अच्छा रखते । ये शांत स्वभाव तथा अपने काम से काम रखना, खरे मिज़ाज वाले हैं जिनकी पुलिस ऑफिसर के समक्ष अच्छी छवि तथा उदारता के लिए पहचान बन गयी, यहाँ तक कि ऑफिसर भी इनकी इज़्ज़त करने लगे । पुलिस महकमे में भी रहकर नमाज़ पढ़ना नहीं छोड़ा तथा गुरु दक्षिणा(बैत) के तदोपरांत दाढ़ी भी रखे रहे लेकिन सेवानिवृत्त होने से कुछ वर्ष पहले एक अधिकारी ने दाढ़ी पर उँगली उठायी कि आपने किसकी अनुमति से दाढ़ी रखी वग़ैरह-वग़ैरह जबकि मेरी नज़र में एक प्रशासनिक अधिकारी का ऐसा व्यवहार करना अशोभनीय है क्योंकि नियम कानून तो ख़ुद ही बेहतर जानते हैं फिर भी जैसा हुआ उसके समाधान में इन सिपाही को भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद व अनुमति पत्र प्रस्तुत करने पड़े लेकिन अपने उसूलों के पाबन्द रहे और विभाग में रहते हुए ही हज़ भी अदा किया। किसी की इमदाद करना अपना फर्ज समझते और अपने भाइयों को अंतिम समय तक वित्तीय मदद करते रहे तथा रिश्तेदारों को भी जितना संभव हो सकता था उतनी मदद करने के लिए तत्पर रहते थे फिलहाल अपनों के अलावा भी गैरों की मदद भी करते रहे। इन्होंने हमेशा अदृश्य रूप से मदद करना अच्छा समझा और इनका मानना रहा कि अगर रब ने नवाजा है तो जितना हो सके इमदाद करते रहे अक्सर जैसे किसी को मदद करना है तो वो कुछ काम के बहाने उसको इमदाद करते ,बस खरे मिज़ाज़ की वजह से कुछ लोगों को इनकी बात रास नहीं आती थी क्योंकि जो गलत रहा उसको मुँह के सामने कहना वरना शांत रहना यही वसूल रहा ।इन्हें पद का कभी भी कोई गुरूर नहीं रहा और भले ही तेज आवाज में बात करते थे लेकिन दिली मुहब्बत सभी से करते रहे परन्तु दिखावा पसंद नहीं किया।


"करते हैं मोहब्बत दिल-ओ-जान से, इज़हार-ए-मोहब्बत मुझको आती नहीं

अक़्सर रहता हूँ ख़ामोश मैं, दरअसल सच बात हर किसी को रास आती नहीं"


ईमानदारी की वजह से अक्सर कई सिपाही और अधिकारी गण ज्यादातर काम इन्हीं को सौंपते, अधिकारी भी इनकी काफी इज़्ज़त करते थे एक बार तो कुछ सिपाहियों ने देख भी लिया तो उन्होंने क्षेत्राधिकारी से पूछा कि एक सिपाही के लिए आप अपनी कुर्सी छोड़ कर खड़े हुए हम कुछ समझे नहीं तो उन अधिकारी ने कहा छोड़ो ये सब अलग मामला है & ये भी अधिकारी पद से रिटायर हो गए। इन्होंने भी कुछ उर्दू में कविताएं(नात-ए-पाक) लिखीं। अब फिर संक्षिप्त में, इनका इकलौता लड़का और इनकी उम्मीद थी कि लड़का अभियंता बने पर वो उम्मीदों पर खरा उतर न सका पर (सफल नहीं होने का कारण शायद उसकी सोच थी) स्वभाव में सिर्फ इमदाद के मामले वैसा ही रहा ।


सीख:- 

"अपने काम के प्रति और सामाजिक जीवन में भी ईमानदारी बरतें , अगर रब ने आपको नवाजा है तो आप भी इमदाद कर सकते हैं।"


 लेखक 

- अब्दुल रहमान (रहमान बांदवी)

  बांदा (उत्तर प्रदेश)

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